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Sanyasi (1945)

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“गृहस्थी” और “सन्यासी” के युद्ध में गृहस्थी हार चुकी थी। और प्रेमनाथ जीवन के समस्त सुखों तथा दिल चस्पियों को ठुकरा कर संसार से अलग हो गया था अब वो सन्यासी था एक चुपचाप और भक्तीभाव में डूबा सन्यासी ।


उसके बाल्यावस्था के साथी और जवानी के सबसे प्रिय मित्र रामदास ने कई बार उसे फिर संसार की ओर खेंचना चाहा परन्तु सन्यासी के पांव हिमालय के समान अटल थे वो अपने स्थान से न हिला- इस तरह दो साथी सदा के लिये एक दूसरे से अलग हो गये ।


राधा ओस की बून्दों की तरह नाजूक और इन्द्रधनुष्य की तरह मनोरम राधा रामदास की एक ही पुत्री थी और वास्तव में यही वह अमोल धन था जिसकी रक्षा के लिये रामदास प्रेमनाथ से बिछड़कर गृहस्थाश्रम में रह गया था। संजोग से एक दिन गांव की पंचायत में बांके की छूरी रामदास की छाती में उतर गई। रामदास का स्वर्गवास हो गया और उसके बाद राधा के सिर पर रक्षा का हाथ सन्यासी को रखना ही पड़ा सन्यासी नियम का पक्का और अपने विचारों का अटल था। राधा के प्रार्थना करने पर उसने राधा को भी अपने मार्ग पर चलाने का निर्णय किया किन्तु राधा के दिल में मोहन के प्रेम ने घर कर लिया था वो सन्यासी की कुटिया में चैन से न रह सकी। प्रेम और त्याग में युद्ध होने लगा। निहायत भयंकर और कोलाहल से भरा हुआ युद्ध अन्त में प्रेम ही कामयाब हुआ और बूढ़े सन्यासी को राधा के साथ एक बार फिर उसी गृहस्थ आश्रम में आना पड़ा अब वो सन्यासी नहीं अपने नियम अनुसार राधा का पिता था ।


परन्तु इस कठोर समाज में किसी कन्या का पिता बनकर जीना आसान न था। सन्यासी को शीघ्र ही प्रतीत हो गया के वो ऐसे स्थान में आ पहुंचा है जिसके चारों ओर मनुष्य रूपी सांप और आदमी बने हुये भेडिये मुंह खोले खड़े हैं। उसे इन सबसे मुकाबिला करना था क्योंकि वो समाज में बेटी का पाब बनकर आया था और बाप का कर्तव्य अभी तक पूरा नहीं हुआ था। राधा मोहन का प्रेम चाहती थी और समाज उस प्रेम की कीमत चाहता था। न सन्यासी के पास कीमत थी न राधा के पास धीरज- बेटी के हृदय की आशा बाप के कलेजे को झरोड रही थी और बाप की गरीबी बेटी के भविष्य पर आंसू बहा रही थी। एक ओर लालसा और स्वार्थ की तल्वारें थीं दूसरी ओर निर्धन पिता की झुकी हुई गर्दन - एक ओर समाज और संसार था और दूसरी ओर अकेला सन्यासी।

कौन जीता और हारा ये स्क्रीन पर देखिये।

(From the official press booklet)